बुधवार, 17 मार्च 2010

भाषा एकांगी नहीं होती l

हम भाषा के बदलते रूप की बात करते हैं और प्राय: भाषा को हिंग्लिश (हिंदी तथा इंग्लिश )तक ही सीमित रख देते हैं। जब भी कभी हिंदी भाषा की बात की जाती है तो पहला सवाल अक्सर ये ही देखा जाता है कि हिंदी भाषा को अंग्रेज़ी भाषा के वर्चस्व से कैसे बचाया जाए। हम अक्सर हिंदी भाषा को अंग्रेज़ी भाषा के सापेक्ष रखकर ही देखते हैं इस मुद्दे को लेकर कुछ सेमिनार भी होते रहे हैं जैसे विश्वपुस्तक मेले में "हिंदी क्या है" और दिल्ली विश्वविद्यालय में भी इस विषय को लेकर सेमिनार हुए थे जिसमे बात आगे बढ़ते- बढ़ते अंग्रेज़ी और हिंदी तक ही सीमित रह गयी थी। मै जब भी इस तरह के सेमिनारों को सुनती हूँ तो मेरे जेहन में हमेशा एक बात आती है कि भाषा अब केवल हिंग्लिश तक ही सीमित नहीं रह गयी है बल्कि उससे भी आगे बढ़ कर वह मिक्सिंग की भाषा बन गयी है आज की भाषा विभिन्न कोडों (भाषा / बोली /शैली ) से उत्पन्न " कोड मिक्सिंग" की भाषा है। विभिन्न कोडों से उत्पन्न भाषा का यह रूप तो पिजिन ही है और ही क्रियोल वास्तव में यह आज की जरुरत के हिसाब से भाषा की एक अलग बनावट है
जब हम भाषा की बात करते हैं तो उसमे कोई एक खास वर्ग नहीं होता बल्कि हर जाति, धर्म, लिंग, वर्ग , आयु आदि की भाषा उसमे सम्मिलित होती है। कोई अनपढ़ व्यक्ति हो या पढ़ा लिखा व्यक्ति, बुद्धिजीवी हो या आम जनता या फिर अख़बार पत्र -पत्रिकाएँ आदि कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जहाँ हमें भाषा की मिक्सिंग देखने को मिलती हो व्यक्ति जिस क्षेत्र से संबंधित होता है उस क्षेत्र की भाषा के आलावा भी वह अपनी जरूरतों के हिसाब से अन्य भाषाओँ /बोलियों को सीखता तथा समझता है और अपने भाषाई कोश का विकास करता है इस भूमंडलीकरण के दौर में व्यक्ति कूप मंडूक होकर नहीं रह सकता। उसे अपने ज्ञान के विस्तार के लिए दूसरी भाषाओँ / बोलियों की ओर जाना ही पड़ता है आज के दौर में केवल एक भाषा तक ही सीमित रहने का अर्थ है अपनी अभिव्यक्ति को सीमित करना , विकास के दौर में पिछड़ना। आज जब एक भाषा के साहित्य का दूसरी भाषा में अनुवाद हो रहा है ; कंप्यूटर , इन्टरनेट की भाषा हमारी भाषा पर प्रभाव डाल रही है तब भाषा के बदलते रूप को कैसे और क्यों रोका जाना चाहिए ? कोई भी वस्तु सदा एक सी नहीं रहती समय के साथ- साथ प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन आता ही है अत: भाषा में भी परिवर्तन आना लाज़मी है हमारा पहला उद्देश्य भाषा का पांडित्य प्रदर्शन करके आत्माभिव्यक्ति और सम्प्रेषण के साथ -साथ भाषा को तकनीक से जोड़ना होना चाहिए
हिंदी भाषा पर जब कभी, कहीं कुछ होता है तब हमेशा दो - तीन बातें बोली जाती हैं कि हमें हिंदी को अंग्रेज़ी के वर्चस्व से बचाना है , उसे राष्ट्रभाषा बनाना है आदि -आदि जबकि हमें इन सभी बातों से आगे बढ़ कर यह सोंचना चाहिए कि दूसरी भाषा के समक्ष हम अपनी भाषा को उपयोगी भाषा कैसे बनाएं ? जो तकनीक से जुडी रोज़गार परक भाषा हो जिससे युवा वर्ग खुद ही इसकी ओर आकर्षित हो हमें अपनी भाषा को सभी क्षेत्रों से जोड़ना होगा और इसके लिए हमें भाषा को सीमित दायरे से बाहर निकाल कर दूसरी भाषाओँ /बोलियों से निरंतर रहे शब्दों को अपनाते चलना होगा कहा भी जाता है कि भाषा बहता नीर है अत: भाषा कभी भी बंधकर नहीं रह सकती वह समय के साथ -साथ अपनी जरूरतों को पूरा करती हुई आगे बढ़ती जाती है इसीलिए हमारी भाषा आज - "मिक्सिंग- भाषा " बन गयी है और इस मिक्सिंग -भाषा ने व्यक्ति को समाज से जोड़ने में बड़ा ही महत्वपूर्ण काम किया है भाषा एकांगी नहीं होती और ही वह एकांगी दृष्टिकोण आधारित होकर अपना विकास कर सकती है भाषा का विकास अन्य भाषाओँ के शब्दों एवं नए इजाद किये जा रहे शब्दों को सहर्ष स्वीकार करने में है हमें भाषा की कोड - मिक्सिंग से हो रहे भाषा के विकास को सकारात्मक नज़रिए से देखने की जरुरत है की किसी भाषा को वर्चस्व की भाषा बनाकर उसे थोपने की किसी भाषा के पतन का एक महत्वपूर्ण कारण इसी थोपने की प्रवृति में छिपा है जो संस्कृत के साथ हुआ या हो रहा है हमें हिंदी को उससे बचाना होगा और साथ ही हमें हिंदी को उस वर्चस्ववादी भाषावाद के खतरनाक रूढ़ीवाद से भी बचाना होगा जो हिंदी में अन्य भाषिक शब्दों के आगमन को " हिंदी के पतन " के रूप में देखता हैl ध्यान रहे कि यदि हम ऐसा करते हैं तो एक तरह से हम हिंदी में राज ठाकरे के" मराठी मानुष " की जुगाली करते ही प्रतीत होंगेl

सोमवार, 1 मार्च 2010

HAPPY HOLI



"HAPPY HOLI "

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

हिंदी को ताक़त की भाषा बनाने से हमें परहेज़ करना चाहिए..

पुस्तक मेले में 'हिंदी क्या है?' विषय पर चर्चा-परिचर्चा की गयी। पंकज पचौरी ( n.d.t.v.) ने इस परिचर्चा का संचालन किया। सुधीश पचौरी , अनामिका , अशोक चक्रधर,मीराकांत,ओम थानवी , मुकेश गर्ग,आदि इस चर्चा के वक्ता थे । विषय के अनुसार हिंदी भाषा को लेकर काफी चर्चा हुई । पंकज पचौरी ने सवाल पूछते हुए चर्चा की शुरुआत की। उनका सवाल था कि 18करोड़ लोग हिंदी बोलते है , हिंदी फिल्मो से हमें इतना मुनाफ़ा ११ हज़ार करोड़ रूपये होता है अभी ३ idiots को ३०० करोड़ का मुनाफ़ा हुआ है internet की दुनिया भी अब हिंदीमय हो रही है तब भी क्या कारण है कि हिंदी को वह जगह नहीं मिल पा रही है जो उसे मिलनी चाहिए? प्रो. सुधीश पचौरी ने कहा कि अगर हिंदी को आगे बढ़ाना है तो उसे उपभोग की भाषा बनाना होगा केवल हिंदी को पढ़ लेने या भाषा तक सीमित रखने से हिंदी का विकास आज संभव नहीं है अब तक हिंदी उपयोग की भाषा थी अब हिंदी उपभोग की भाषा बनती जा रही है । डॉ. मुकेश गर्ग ने कहा कि हिंदी के आगे ना बढ़ पाने का कारण हमारी शिक्षा पद्धति है क्योंकि जब हम अपने बच्चो को हिंदी पढाएंगे ही नहीं तो वे उसे सीखेंगे कहाँ से ? ओम थानवी ने आज की हिंदी को देखते हुए चिंता व्यक्त की उनका मानना था कि आज हिंदी का जो (बिगड़ा ) रूप चल रहा है उसके जिम्मेदार कुछ हद तक तो मीडिया भी है उनका मानना है कि जो शब्द हम आज टी.वी . या रेडियो पर सुनते है उसने हिंदी को बिगाड़ दिया है आज मै रेडियो पर ' बाप' शब्द सुनता हूँ तो हिंदी का ये रूप हिंदी को बिगाड़ रहा है अशोक चक्रधर ने कहा कि हिंदी का भला कोई ऊपर से नहीं कर सकता हिंदी का भला होगा तो वह नीचे से होगा उनका कहना था कि हिंदी में भी अब आप इन्टरनेट , कम्प्यूटर पर काम कर सकते है, हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा बनती जा रही है हिंदी आज 130 देशो में पढाई जाती है। मीराकान्त ने कहा की भाषा तो बहता नीर है ये जब बहती है तो सबको अपने साथ ले जाती है उन्होंने कहा की भाषा को आजकल बाज़ार तय करता है । इस तरह यह चर्चा चलती रही और आगे भी इसी तरह चलती भी रहेंगी पर इन परिचर्चाओं को करने का फायदा तभी है जब हम इनमे शामिल हों, कुछ मुद्दे उठा सके और अपनी भाषा के लिए कुछ कर सकें। पर जो बात मुझे सबसे जानदार लगी वो ये कि भाषा का विकास आप डंडे के जोर पर नहीं बल्कि उसे सहभागिता, ज्ञान और जैसाकि सुधीश पचौरी ने कहा कि उसे उपभोग की भाषा बनाकर ही किया जा सकता है, ताक़त की भाषा बनाकर नहीं, ताक़त से हम राज ठाकरे के मानुषों को ही उत्पन्न करेंगे इसलिए हिंदी को ताक़त की भाषा बनाने से हमें परहेज़ करना चाहिए।

रविवार, 3 जनवरी 2010

बहुभाषिकता - आज की आवश्यकता


आज बहुभाषिकता एक आवश्यकता बन गयी हैl हम कहीं भी जाएँ , कुछ भी काम करें तो यह आवश्यक नहीं की हमारा संपर्क जिस व्यक्ति से हो वह भी उसी भाषा को जानता हो जिसे हम जानते हैं यही कारण है की हमें दूसरी भाषा पर जाने की आवश्यकता पड़ ही जाती है आज नई- नई तकनीकि हमारे सामने आ रही हैl विज्ञान दिनों- दिन तरक्की कर रहा हैl भौगोलिक दूरी कम होने के साथ- साथ सामाजिक गतिशीलता भी बढ़ी है इसलिए आज व्यक्ति एक जगह सीमित रहकर नहीं रहना चाहता वह तरक्की करना चाहता है, आगे बढ़ना चाहता है और इसके लिए उसे अपने सीमित दायरे से निकल बाहर झांकना पड़ता है l
समय धीरे- धीरे बदल रहा है वह ज़माना गया जब लोग सिर्फ एक भाषा तक ही सीमित रहकर अपने अधिकतर काम कर लिया करता थेl आज आए दिन हमारा संपर्क दूसरे व्यक्ति से होता रहता हैl हमारे देश का विद्यार्थी नई तकनीकि सीखने के लिए विदेश जाता है वहा पढ़ता -पढ़ाता है वहाँ की भाषा से भी तब उसका परिचय होता है हम अपने देश में भी एक जगह नहीं रहते चाहे- अनचाहे कभी- कभी हमें दूसरी जगह पर जाना पड़ सकता l इसी तरह चाहे वह शिक्षा का विषय हो या नौकरी का, वहाँ हमारा संपर्क दूसरे आदमी से हो ही जाता हैl तब ऐसे में हमें दूसरी भाषा की ओर जाना ही पड़ता हैl वरना न तो हम अपनी इच्छाओं की पूर्ति ही कर सकते हैं और न ही अपनी जरूरतों को पूरा कर सकते हैंl ऐसे में हमारी व्यावहारिक आवश्यकता ऐसी होती है जो हमें व्यावहारिक बना देती है मान लीजिये एक पंजाबी व्यक्ति है वह घर में पंजाबी ,अपने कॉलेज़ में english और दूसरे रोज़मर्रा के लोगों से हिंदी में बात करता है तो इस प्रकार वह आदमी बहुभाषी है और उसकी व्यावहारिक आवश्यकताओं ने उसे बहुभाषिक बना दिया है और इस तरह वह अपनी स्तिथि तथा सन्दर्भ को देखते हुए एक भाषा से दूसरी भाषा की ओर चला जाता है

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

भाषा और संस्कृति

हमारी संस्कृति का असर हमारी भाषा ( यहाँ भाषा का मतलब सिर्फ़ मुँह से निकलने वाले शब्द ही नही है बल्कि अपनी बातों को दूसरे तक पहुँचाने वाले वे सभी साधन है जिससे हम अपनी बात {सम्प्रेषण } दूसरों तक पंहुचा सकते हैं ) पर भी पड़ता हैl जिस तरह की संस्कृति होगी भाषा भी उसी के अनुसार बदलती रहती हैl दो अलग -अलग देशों की संस्कृति भी अलग -अलग ही होती है (हो सकता है की कुछ बातें मिलती भी हो पर सिर्फ़ कुछ ..........) उस अलग संस्कृति से हमारी भाषा भी प्रभावित होती हैl उदाहरण के लिए पश्चिम के देशों की संस्कृति खुले विचारों वाली है इसलिए वहाँ के संस्कारों के अनुसार ही लोग hello , hi आदि बोलते है, वहाँ दूसरों को गले लगाया जाता हैl ऐसा वे केवल अपने से छोटों के साथ नही करते बल्कि चाहे बड़े हो या छोटे वे दोनों के लिए ही ऐसा प्रयोग करते हैं जबकि हमारे यहाँ बड़ो को नमस्ते या प्रणाम किया जाता है उनके पैर छूए जाते हैं (ये बात अलग है की अब हम भी धीरे -धीरे hi, hello करने लगे हैं ) इसी प्रकार जिस तरह की संस्कृति होगी उसी तरह के शब्द भी हमारे daily के use में आते हैं जैसे हमारे यहाँ सिन्दूर, पगड़ी , स्वास्तिक चिन्ह ,शेरवानी ,साड़ी , अर्ध्य , लंगोटी , धोती , चूड़ा , मिठाईयों के नाम जैसे गुलाबजामुन ,चमचम , रसगुल्ला आदि ,चुटकी या बिछ्वे , मंगलसूत्र , जैसे अनेक शब्द हैं जो हमारे यहाँ मिलते हैं जबकि उनके यहाँ इस तरह के शब्द नही पाए जाते और देखे तो हमारे यहाँ परिवार ,संबंधों का शुरू से ही बड़ा महत्व रहा है यही कारण है की हमारे यहाँ हर एक रिश्ते का एक अलग ही नाम है जैसे चाचा ,मौसा ,फूफा , ताऊ , जबकि वहाँ सभी के लिए सिर्फ़ uncle और चाची ,ताई , मौसी , बुआ के लिए वहाँ aunty का प्रयोग किया जाता है हमारे यहाँ बड़ों के पैर छुए जाते है, जबकि वहाँ हाथ मिलाया जाता है, गले लगाया जाता है kissing की जाती हैl इस प्रकार हमारी संस्कृति हमारी भाषा पर भी प्रभाव डालती है

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

क्या हम स्वतन्त्र हैं ?


राज ठाकरे साहब को तो जैसे तमाशा सा करने की आदत ही पड़ गयी हैl वे तो बस किसी भी बात को लेकर सुर्खियों में रहना चाहते है (या कहें की हर समय अलगाव पैदा करना और अव्यवस्था फैलाना चाहते है) वैसे हैं तो वो हमारे देश के नेता पर देश(भले ही उनके लिए देश एक राज्य तक ही सीमित हो ) के नाम पर ही खाना चाहते हैंl कल उन्होंने जो घिनौना काम किया उससे लगता तो नही की वो पूरे भारत को ही अपना देश समझते हैं, मजे की बात तो ये है की जब उन्हें वोट चाहिए हो तब तो पूरा राष्ट्रीय उन्हें अपना लगता है पर उसके बाद उन्हें अचानक से '' सिर्फ़ अपने देश(राज्य)'' की याद,उसी की भलाई ,और उसी की भाषा याद आने लगती हैl यहाँ तक की वे अपनी सोचते-सोचते,अपनी सोच को दूसरों पर भी थोपने से बाज नही आते महाराष्ट्र विधानसभा में समाजवादी पार्टी के विधायक अबू असीम आज़मी के हिंदी भाषा में शपथ लेने पर मनसे के विधायकों ने उन्हें बिना किसी कारण के ही पीट दिया और बात सिर्फ़ इतनी सी थी कि राज ठाकरे ने सभी विधायकों से मराठी में शपथ लेने को कहा था और आज़मी ने शपथ मराठी में न लेकर हिंदी में लीl सोंचने की बात यह है की जिस देश के लोकतंत्र के उदाहरण को दूसरे देशों में दिया जाता है, उस देश में ही इस तरह की हरकत क्या हमारे नेता के लिए सही है? क्या यह हिटलरवादी शासन नही है ?एक तरफ़ वाजपेयी जी थे जिन्होंने विदेश में जाकर महासभा में हिंदी में अपनी बात कही थी और दूसरी तरफ़ ऐसे लोग भी हैं जो अपने देश में ही अपनी भाषा में शपथ लिए जाने पर इतना हंगामा करते हैं और तो और बेशर्मी की भी हद पार करते हुए शिंदे साहब अपनी तुलना इंदिरा गांघी जी करते हैंl जिस देश में हर नागरिक को स्वतंत्र रूप से रहने का अधिकार हो उस देश में एक व्यक्ति द्वारा किस तरह से दूसरे की स्वतंत्रता को छीनी जा रहा है यहाँ आसानी से देखा जा सकता है क्या राज्य राष्ट्र से भी बड़ा होता है? जब हिंदी को राजभाषा मान कर हर काम अंग्रेज़ी /हिंदी में किया जाता है तब अगर आज़मी ने हिंदी में शपथ ले भी ली तो इसमे कौन सी आफत आ गयी और फ़िर यहाँ हर किसी को कुछ भी खाने ,कहीं भी रहने और भाषा बोलने का अधिकार है तो राज ठाकरे का इस तरह ये इस तरह की हरकत करने का क्या अर्थ है क्या अब महाराष्ट्र में ठाकरे शाही चलेगी ? इस तरह की हरत न केवल व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को छीनती है बल्कि हमारे देश की छवि को भी ख़राब करती है l

शनिवार, 31 अक्तूबर 2009

देह भाषा भी मूलतः भाषा ही हैl




हम जब कभी भाषा की बात करते हैं तो क्या कभी देह भाषा के बारे में भी सोंचते हैं ? अगर हम linguistic में देखे तो वहाँ भाषा को विभिन्न मुखाव्यवों द्वारा उच्चरित भाषा ही कहा जाता है और अगर आप लोगों से पूछे तो वे कहेंगे कि भाई साहब भाषा तो वही है जो मुँह से बोली जाती है और बहुत से बड़े विद्वानों ने भी भाषा के बारे में जो खोज किए हैं वो भी भाषा कि सरंचना के आधार पर ही किए हैं या फिर उसे समाज के साथ जोड़ कर ही देखा है (सस्यूर , ब्लूम फ़ील्ड , चोमस्की ,फ़र्ग्युसन ,लेबाव ,रविन्द्र नाथ श्रीवास्तव ,भोलानाथ तिवारी ) पर उन्होंने कही भी भाषा को देह के साथ जोड़ कर नहीं देखा जबकि अगर ध्यान से देखा जाए तो हमारी भाषा की शुरुआत ही संकेतों और देह भाषा ही से हुई है पहले समय में जब हमारे पास भाषा नही थी तब हम संकेतो, इशारों,शरीर के विभिन्न अंगों , चिन्हों के माध्यम से ही अपनी बात दूसरों तक पहुचाते थे पर धीरे- धीरे, जैसे- जैसे भाषा का विकास होता गया वैसे- वैसे हम सिर्फ़ मुँह से बोलने वाली भाषा तक ही सीमित रह गए और यहाँ तक की सारी research वगैरह भी बाद में इसी पर सीमित हो गयी और हम ने अपनी भाषा का विकास जहाँ से शुरू किया था हम उसे भूल ही गए पर अगर हम गौर करे तो हम कम से कम अपनी आधी बातें तो संकेतों ,इशारो ,चिन्हों आदि से ही कहते हैं जैसे मुझे नही पता के लिए कंधे उचकाना, उंगली मुँह पर रखने का अर्थ है चुप रहना ,हाथ को घूमा के पूछने का अर्थ है क्या हुआ , ताली बजाने का अर्थ है किसी काम का अच्छा करने पर उसकी तारीफ़ करना ,किसी का हाथ छूना अब देखिये हाथ को छूने के भी , अर्थ निकलते है जैसे किसी माँ का अपने बेटे को छूने में ममता झलकती है ,किसी प्रेमिका द्वारा अपने प्रेमी को छूने से प्यार का पता चलता है इसी तरह किसी लड़के का किसी लड़की को आँख मारने या सीटी बजाने का अर्थ है की वह किसी लड़की को छेड़ रहा है और अगर दोस्त आपस में बात करते हुए एक -दूसरे को आँख मार रहे हो तो इसका अर्थ है की वे किसी तीसरे से किसी दूसरी बात को मजाक में ले रहे हैं ,माँ द्वारा अपने बच्चे को दूर से थप्पड़ दिखाने का अर्थ है की वो माँ उसकी पिटाई करेगी और किसी बात पर गुस्सा है ,एक उंगली को अपने कान के ऊपर थोड़ा सा लाकर फ़िर उंगली को घुमाने का अर्थ है की दूसरा व्यक्ति जो है वो पागल है , रुपये पैसे के लिए अंगूठे और पहली उंगली को , बार घूमाने का अर्थ है की व्यक्ति पैसों के बारे में बात कर रहा है इसी तरह भूख लगने पर हम अपने हाथ की पाँचो उंगलियों को मिलाकर उसे मुँह के पास ले जाते है, कहीं से बदबू आने पर रुमाल को मुँह पर रखते है आदि आदि और न जाने इस तरह के ही कितने संकेतो का इस्तेमाल हम अपने रोज़मर्रा के भावों और विचारों को बताने के लिए करते हैं पर हम फ़िर भी इस देह भाषा के बारे में कभी भी नही सोचते जबकि हमें अपनी भाषा में ही इसे भी जगह देनी चाहिए माना की ये भाषा का सीमित रूप है पर फ़िर भी जब हम समाज और भाषा के सम्बन्ध को देखते हुए भाषा की बात करते है तो जहाँ तक मुझे लगता है हम इस देह भाषा को अनदेखा नही कर सकते l